काश मैं उस वक्त समझ जाती

काश मैं उस वक्त समझ जाती- ये पंक्ति आपने कई बार लोगों के मुंह से सुनी होगी। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि सही वक्त पर सही बात समझना इतना मुश्किल क्यों होता है? बचपन से लेकर अब तक मैंने लोगों को सड़कों पर प्रदर्शन करते देखा हैचाहे वो निर्भया केस हो या कोलकाता रेप केस में। लोग पहले भी सड़क पर उतरे थे, आज भी उतर रहे हैं, और शायद आगे भी ये सिलसिला चलता रहेगा।

हमारे देश में हर दिन कोई न कोई बेटी उन दरिंदों की हवस का शिकार बनती है, जो अपने अंदर की आग को शांत करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। अखबार के पन्नों पर बलात्कार के आंकड़े देखना आसान हो सकता है, लेकिन उन बलात्कारियों को सजा दिलवाना शायद सरकार के लिए उतना ही मुश्किल हो जाता है। हमारे देश में न जाने कितने केस ऐसे हैं जो दबे पड़े हैं, जहां महिलाएं हर दिन उत्पीड़न का सामना करती हैं, लेकिन समझ ही नहीं पातीं कि उनके साथ क्या हो रहा है।

आज जब किसी महिला के साथ हुए हादसे के बारे में हम सुनते हैं, तो अपने गुस्से को सोशल मीडिया पर पोस्ट या वीडियो डालकर अपना विरोध जताते हैं, लेकिन असल ज़िन्दगी में शायद हमें ये ज्यादा दिनों तक याद भी नहीं रहता। आपने देखा होगा कि जब महिलाएं सालों बाद अपनी कहानियां बताती हैं, तो कहती हैं, "काश मैं उस वक्त समझ जाती।"

हमारे देश में ऐसी अनगिनत महिलाएं हैं जिन्होंने किसी न किसी रूप में यौन उत्पीड़न का सामना किया है, लेकिन उन्हें इसका आभास बहुत बाद में होता है। वर्कप्लेस, घर, गली-मोहल्लाहर जगह ऐसी घटनाएं रोज़ाना किसी मासूम की चीख का इंतजार करती हैं। कभी कोई पुरूष आपको छू कर चला जाता है, कभी किसी ने ऐसा कुछ कह दिया जिसका जवाब उस वक्त आपके पास नहीं होता। बसों में, भीड़-भाड़ वाले इलाकों में, कई पुरूष महिलाओं को पब्लिक प्रॉपर्टी समझने लगते हैं और छूने या छेड़ने का कोई भी मौका नहीं छोड़ते।

लेकिन सवाल यह है कि उन मामलों का क्या जहां भले ही महिलाओं के साथ बलात्कार को अंजाम नहीं दिया गया, लेकिन मंशा वही थी। क्या इसके लिए भी कोई कानून है? जहां औरतों को महसूस होता है कि उन्हें कोई बुरी नजरों से देख रहा है, लेकिन फिर भी वे चुप रहती हैं, खुद को समझाने की कोशिश करती हैं कि शायद ये सही नहीं है। लेकिन खुद के साथ हुए अन्याय को सहकर बाद में पछताना कि हमने कुछ कहा क्यों नहीं? किया क्यों नहीं? इससे बेहतर होता है कि उसी वक्त अपने लिए खड़े हो जाएं। ताकि आने वाले कल में आपके अंदर हिम्मत की कोई कमी न हो।

खुद के साथ हुए जुल्म को नजरअंदाज करना, खुद को उस अंधेरे में धकेलने जैसा है जो हमें आखिर में सिर्फ पछतावे का पात्र बनाता है। सवाल अब ये है कि कब हम इन खौफ से आज़ादी पाएंगे? कब हम खुलकर, बिना किसी डर के अपनी कहानी लिख पाएंगे? कब एक औरत यह सोचना बंद करेगी कि "हम लड़कियां हैं, ऐसा तो होगा ही"?

अब वक्त आ गया है कि हम अपनी आवाज़ को बुलंद करें, उन खामोशियों को तोड़ें जो हमारे भीतर कहीं गहरे दबी पड़ी हैं। हमें समझना होगा कि हमारे साथ जो हुआ, वो गलत था, और इसे सहने की जरूरत नहीं है। हमें ये समझना होगा कि हमारी चुप्पी ही हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है, और जब तक हम इस चुप्पी को तोड़ेंगे नहीं, तब तक ये सिलसिला चलता रहेगा।

इसलिए, हर औरत को ये सोचना बंद करना होगा कि "काश मैं उस वक्त समझ जाती।" बल्कि अब हमें समझना होगा, खड़ा होना होगा, और कहना होगा-"मैं समझ गई हूं, और अब मैं चुप नहीं रहूंगी।" ये हमारी आवाज़ है, हमारी कहानी है, और इसे हम ही लिखेंगे-बेहद जोरदार, बेहद स्पष्ट, और सबसे महत्वपूर्ण, बेहद बहादुरी के साथ।


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